वार्ता प्रसंग…
सो एक समय श्री सूरदास जी मार्ग में एक वैष्णव के संग चले जात हते, ता मार्ग में कछुक जाने चोपड़ खेलत हते सो वा चोपड़ के खेल में इसे लीन व्हें रहे जो काहू आवते जवते की खबर नाही…
यह देखि के श्री सूरदासजी ने अपने संग के वैष्णव कु कह्यो के देखो यामे जिव सब अपनों जन्म वृथा खोवत है..हमकू यह देह प्रभु ने दिनी हे सो सेवा सत्संग के लिए दिनी है..!!
त़ाते चोपड़ इसी खेलनी चाहिए कहके यह पद सुनायो
सो पद –
” मन ! तू समुज़ सोचि विचार
भक्ति बिना भगवंत दुर्लभ कहत निगम पुकारी..
साधु संगति डारी पासा फेरी रसना सारि !! (यह अधुरो पद हे)
यह पद पुरो वैष्णव न ने सुनी और श्री सूरदासजी सु कही की हम कछु समुज़े नाही, ता समय श्री सूरदास जी ने कह्यो !
” मन ! तू समज सोच विचारि ”
सो ये तीनो वस्तू भगवद भजन में चाहिऐ , काहेते ? जो ” समज ” ना होयगी तो श्रवण का करेगो ? श्रवण में भी समज आवश्यक है ! ” सोच ” बिना भगवद धर्म विषयक चिंता ना होई तो संसार में वैराग्य कहासे आवेगों ? ” विचार ” या जीवन को विचार नाही हे तो सत्संग हु में का समजेगों ? ताते विचार जरुर रखिये..
ये तीनो होय तो भगवदीय होई..!!
जेसे चोपड़ में समज बिना गिननो ना आवे तो गोट केसे चले ? और सोच भी आवश्यक हे की मेरे यह दाऊ प्रे तो यह गोट चले ! एवं विचार की याहि में तन्मयता सो यह तीनो होय तो चोपड़ खेली जाय..!!
और यही तिन्यो हमकू भगवत धर्म में हु आवश्यक बनि रहे हे…!!
- संकलन – गो हरिराय..!!
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