दिनतासागर”श्रीहरिरायमहाप्रभुजी”का प्राकट्य संवत१६४७ भादोवद-५-को हुआ।श्रीमहाप्रभुजी की-५-वी पीढी में आपका प्राकट्य हुआ।(१)=श्रीमहाप्रभुजी(२)श्रीगुंसाईजी(३)श्रीगोविन्दरायजी(४)श्रीकल्याणरयजी(५)श्रीहरिरायजी। आपश्री के चरित्र कि एक बडी विशेषता यह थी कि आप आचार्य होते हुए भी एक साधारण वैष्णव जैसे हि दिनता का भाव रखते थे।आपश्री वैष्णवों के साथ नीचे बैठकर हि सत्संग करते थे।आप प्रतिदिन वैष्णवों को श्रीमदभागवत कि कथा कहते थे,और वाणी में आपके ऎसा रस था कि वैष्णव दूर-दूर से कथा सुनने आते थे।वे रस में मग्न होकर लौटते थे और मार्ग में कथा सम्बन्धित चर्चा जोर जोर से करते थे जिसके कारण वहां रहेनेवाले जैनियों कि नींद में प्रतिदिन बाधा पडती थी।एक दिन उन्होने श्रीहरिरायजी से यह शिकायत कि तब आप एक सामान्य वेषभुशा में वैष्णवों के पीछे-पीछे गये और आपश्री ने जब उनके भाव को देखा तो आप स्वयं उनकी तल्लीनता देखकर अपने आप को भूल गए और उन वैष्णवों कि मण्डली में श्रीजी के दर्शन किए तब आपने यह पद गाया.”हों वारी जाऊं ईन वल्लभीयन पर अपने तन को करूं बिछौना शीसधरूं इनके चरणन तर,भाव भरी देखो मेरी अखियन मण्डल मध्य बिराजत गिरिधर…..ऎसा भाव आप अपने पुष्टिजीवों पे रखते थे।आज उनके प्राकट्य दिवस पर हम उनसे यही विज्ञप्ति करें कि हमारा भी भाव आप जैसा हि पुष्टिजीवों के प्रति हो………
J j dandwat pranam
Aap shree ko b khub khub badhai ….
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